कटरीना की हिंदी सुधारते-सुधारते मेरी अंग्रेजी सुधर गई

इंदौर फिल्म 'मैंने प्यार क्यूं किया' के डायरेक्टर डेविड धवन का फोन आया कि किसी विदेशी लड़की की हिंदी सुधरवानी है। मैंने कहा कि सर मैं मप्र का रहने वाला हूं, इसलिए अंग्रेजी में मेरा हाथ जरा तंग है। ऐसे में उसकी हिंदी कैसे सुधारूंगा? वे बोले मैं कुछ नहीं जानता, तुम्हें यह काम करना ही है। खैर राम-राम करते मैं कटरीना से मिला, तो पाया कि मैंने जितनी सोची थी वे उतनी हिंदी भी नहीं जानती थीं।फिर भी कुछ महीनों में किसी तरह मैं उन्हें हिंदी सिखाने में कामयाब हो गया। इस बीच मैंने महसूस किया कि इससे मेरी अंग्रेजी भी बेहतर हो गई है। केटरीना से मिले इस अंग्रेजी ज्ञान के चलते जब मैंने नरगिस फाखरी और वरुण धवन जैसे कलाकारों को हिंदी सिखाई तो मुझे कम परेशानी हुई।यह कहना है मशहूर थिएटर एक्टर, डायरेक्टर और आर्टिस्ट मेंटर आनंद मिश्रा का। एक एक्टिंग वर्कशॉप के सिलसिले में शहर आए इस कलाकार ने नईदुनिया से खास गुफ्तगू में बताया कि थिएटर और फिल्मों की एक्टिंग में जमीन-आसमान का फर्क होता है। थिएटर में संवाद अदायगी लाऊड होती है तो फिल्मों में नॉर्मल टोन रखनी पड़ती है। थिएटर में दर्शकों की आंखों में आंखें डालकर एक्टिंग करनी होती है तो फिल्मों में कैमरे को ही आडियंस मानकर एक्ट करना होता है।थिएटर में एक के बाद एक सारे प्रसंग तय स्क्रिप्ट के मुताबिक होते हैं जबकि फिल्मों की शूटिंग सीन के बजाय लोकेशन, एक्टर और परिस्थितियों के मुताबिक होती है। इसलिए रोल को बेहत सावधानी से समझना होता है। जरा भी ऊपर-नीचे होते ही रोल की थीम बिगड़ जाती है। अपने रोल के साथ दूसरों की भूमिकाओं के ग्राफ को भी बारीकी से समझना जरूरी होता है।हिंदी नाटकों के साथ सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि अब नाटक लिखने वाले लेखक बहुत कम हो गए हैं। मराठी और अन्य भाषाओं के कई डायरेक्टर, अब भी लेखक के साथ बैठकर नाटक लिखवाते हैं मगर हिंदी में ये परंपरा पनप ही नहीं पाई है। इसके अलावा हिंदी नाटक नए समाज की नई उलझनों से भी अछूते हैं क्योंकि जब तक पुराने नाटक रिपीट होते रहेंगे या पुरानी कहानियों के नाट्य रूपांतरण किए जाते रहेंगे तब तक नई बात पैदा ही नहीं हो सकेगी। मिसाल के तौर पर अगर आज के दौर में ब्रेकअप, पैचअप जैसी बातें आम हो गई हैं तो ये सब हमारे नाटकों में दिखना चाहिए।